बिल्लेसुर बकरिहा–(भाग 33)
बिल्लसुर ने फिर पूछताछ नहीं की। सन्देह हुआ।
जी में आया, चलकर नाले के किनारे खोजूँ, लेकिन बकरियों को किसके भरोसे छोड़ जायँ, फिर एक बच्चा ग़ायब कर दिया जाय तो क्या करेंगे? जल्दी-जल्दी मकान की तरफ़ बढ़े।
बच्चों और बकरियों को भगाते ले चले।
रास्ते में दो-एक आदमी मिल, पूछा, "क्या है बिल्लेसुर, इतनी जल्दी और भगाये लिये जा रहे हो?" बिल्लेसुर ने कहा, "भय्या, एक पट्टा किसी ने पकड़ लिया है, वहाँ नाले के पास, लड़के ढोर लिये खड़े हैं, बताते नहीं।"
सुननेवालों ने कहा, "जानते हो, गाँव में ऐसे चोर हैं कि कठैली भी आँगन में रह जाय तो अटारी से उतरकर उठा ले जायँ।
बोलो तो द्वार-बाहर बेइज्ज़त करें। कहाँ कोई गाँव छोड़कर भग जाय?" बिल्लेसुर बढ़े।
दरवाज़ा खोला। कोठरी में बच्चों को और दहलीज में बकरियों को ताले के अन्दर बन्द करके डंडा लेकर दीना का पता लगाने चले।
पहले दीना के घर गये। पता लगा कि वह घर में नहीं है।
वहाँ से सीधी खुश्की से नाले की ओर बढ़े।
ऊँचे टीले पर एक लड़का बैठा इधर-उधर देख रहा था।
बिल्लेसुर समझ गये। नाले के किनारे-किनारे बढ़े। लड़के ने एक ख़ास तरह की आवाज़ की।
बिल्लेसुर समझ गये कि पास ही कहीं है।
बढ़ते गये, बढ़ते गये। दूर एक झाड़ी दिखी, निश्चय हुआ कि यहीं कहीं मारा पड़ा होगा।
झाड़ी के पास पहुँचे, वहाँ कोई नहीं था। झाड़ी के भीतर गये।
अच्छी तरह देखने लगे, ख़ून से तर ज़मीन दिखी। तअज्जुब से देखते रहे। बकरा या आदमी न दिखा।
चहरा उतर गया। दिल रो रहा था, लेकिन आँखों में आँसू न थे। कहीं इन्साफ़ नहीं, सिर्फ़ लोग नसीहत देते हैं।
चलकर कुए के पास आये। बहुत गरमा गये थे। जगत पर बैठे। बकरा मार डाला गया।
लड़के जानते हैं, लेकिन बतलाते नहीं। आठ रुपये का था। जी रो उठा। कोई मददगार नहीं।
ढलते सूरज की धूप सिर पर पड़ रही थी, लेकिन बिल्लेसुर ख़याल में ऐसे डूबे थे कि गरमी पहुँचकर भी न पहुँचती थी।